आज हम इम्म्यूनिटी के संदर्भ में विटामिन, कैल्सीयम, प्रोटीन आदि के विषय में अत्यधिक सजग हो रहे हैं। अधिकतर जब हम पोषक तत्व और सूक्ष्म पोषक तत्व नापते हैं, तब हम विभिन्न प्रकार से उस पोषक तत्व की मात्रा को लैब आदि में जानने का प्रयास करते हैं। हालाँकि एक चीज जो हम अनदेखा करते हैं, वह यह है कि हमारे शरीर और लैब मैं अंतर है।
जब हम भोजन को देखते है और खाते हैं तब हमारे शरीर का पाचन तंत्र सक्रीय हो जाता है और मुँह, पेट, आँत आदि से होते हुए भोजन एक पूरे पाचन प्रणाली से होकर जाता है। यह जो पूरी पाचन की प्रक्रिया है वह कोई एक या दो सरल केमिकल रीऐक्शन नही है जैसा हम अमूमन लैब में करते हैं, बल्कि एक पूरी प्रणाली है। यहाँ अगर हम गौर करें, तब दिखेगा कि जो सब से प्रमुख बात होती है वह यह है कि भोजन कितना पच पाता है। क्योंकि भोजन जब पचेगा, तभी शरीर उसमें से पोषक तत्व, ऊर्जा आदि का लाभ ले पाएगा। यदि किसी कारण वश वह भोजन नही पच पाया, तब वह अधूरा पचा हुआ भोजन हमारे लिए टॉक्सिन बन जाता है और उसका प्रभाव हमारे ऊपर नकारात्मक होता है।
हम सब जानते हैं कि जंगल में जो जानवर होते हैं उन सबका अपना अपना भोजन होता है। हर जानवर को पता होता है कि उनके पाचन तन्त्र के लिए क्या अनुकूल है और क्या प्रतिकूल। वो जानवर भले ही प्रयोगशाला में पोषक तत्व नही नाप पाते हों, लेकिन अपने पाचन तंत्र के अनुकूल भोजन करने से उन्हें पोषक तत्व के बारे में चिंतित होने की आवश्यकता नही होती है।
इसके ठीक विपरीत, आज हम प्रगति और आधुनिक के नाम पर प्रकृति से इतने दूर आ गये हैं कि हमें अब यह नही पता कि जो हम खा रहे है वह हमारे पाचन तंत्र के लिए बना भी है या नही। उदाहरण की लिए, एक शोध किया गया। इसमें आज जिस जरसी आदि के दूध का हम सेवन इतने चाव से करते हैं, उसे सिम्युलेटेड गस्टरो इंटेस्टिनील डायजेशन (यानी लैब में एक ऐसी प्रणाली बनायी गयी जो हमारे पाचन तंत्र की तरह हो) से ले जाया गया। इस शोध में पाया गया कि ऐसे दूध में जो प्रोटीन होता हाई जिसे हम ए-वन प्रोटीन कहते हैं, वह पच नही पाता है। और जो वो आधा पचा हुआ रह जाता है वह एक ओपीओईड होता है। ओपीओईड यानी उसका प्रभाव हमारे शरीर और मन पर अफीम की तरह होता है। जब हम प्रकृति के निकट थे, तब हमें पता रहता था कि कौन सा दूध हमारे लिए अनुकूल है। हमें कोई भी पोषक तत्व नापने की आवश्यकता नही होती थी। आज हम कैल्सीयम, प्रोटीन आदि नाप कर भोजन खा तो रहे हैं लेकिन हमें यही नही पता है कि भोजन हमारे लिए बना भी है या नही।
जिस दूध में हम प्रोटीन नाप कर इतने प्रसन्न हो रहे हैं, वह प्रोटीन हमारे लिए सुपाच्य ही नही है और नही पचने पर उसका प्रभाव अफीम की तरह हो रहा है। अब यहाँ यह समझना आवश्यक है कि इस तरह का भोजन, जो सुपाच्य नही है, उसका सेवन बार बार करने से हमारे पाचन तंत्र पर निरंतर प्रहार होते रहता है। इससे हमारा पाचन तन्त्र समय की साथ और दुर्बल होता जाता है। ऐसे में जो भोजन हमारे पाचन तन्त्र की लिए बना भी है वह भी अच्छे से नहीं पच पायेगा और पोषक तत्व की कमी कि समस्या और विकराल होते जाएगी।
पाचन तंत्र और इम्म्यूनिटी का बहुत गहरा सम्बंध है। जितना हमारा पाचन तन्त्र अच्छा होगा उतनी हमारी इम्म्यूनिटी अच्छी होगी। जितना हमारा पाचन तन्त्र दुर्बल होगा उतनी हमारे इम्यूनिटी क्षीण होगी। इसलिए बहुत आवश्यक है कि हम समझने का प्रयास करें कि कोई भी तथाकथित भोजन वास्तविक तौर पर हमारे लिये भोजन है कि नही। समझना आवश्यक है कि यह भोजन मनुष्य की लिए बन है कि नही। उस पर भी हम सबकी अपनी अपनी क्षमता होती है इसलिए स्वयं के शरीर और मन से जुड़कर यह समझना बहुत आवश्यक है कि किसी भोजन क हमपर क्या प्रभाव हो रहा है। मात्र लैब में पोषक तत्व नापने से हमें यह सब नही पता चलेगा और यदि वाह भोजन नही पच पाया तो पोषक तत्व मिलना तो दूर की बात उल्टा हमारा इम्यूनिटी और कम होता जाएगा।
आज हम अपने पारम्परिक समझ से इतने दूर आ गए हैं कि हम में से शायद किसी को भी अब नही पता है कि ५०-६० साल पहले हम क्या खाया करते थे। आज जो भी प्रचार प्रसार हमें बता रहा है वही हमारे लिए भोजन है। रासायनिक चाय की धूल, विषाक्त दूध और रासायनिक चीनी का मिश्रण हमारे पाचन तंत्र को सबल बनाता है या दुर्बल? हमारी इम्यूनिटी को बढ़ाता है या घटाता है? एक बार पारम्परिक समझ से जुड़कर देखें..प्रकृति को समझकर देखें..चीजें स्वयं ही सरल होते जाएँगी..इतने नाप तौल की आवश्यकता ही नही होगी..वरना ऐसा नही हो कि हम इन तत्वों को नापते ही रहें और यही सोचते रहें कि पैसे खर्च करके हम इन तत्वों का सेवन कर सकते हैं भले ही हम भोजन के नाम पर विष का सेवन करते रहें..
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Richa did B.Tech from IIT Roorkee and was in the corporate world for 11 Years.She quit it as VP in Morgan Stanley.Since,then she has applied Science and traditional wisdom to understand different aspects of lifestyle which are against Nature.
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