छठ पूजा: बिहार की सांस्कृतिक आत्मा का महापर्व
बिहार की सांस्कृतिक परंपराएं अत्यंत गहरी और बहुआयामी हैं, और इनमें छठ पूजा का स्थान सर्वोपरी है। छठ पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि बिहारवासियों के हृदय और आत्मा का अभिन्न हिस्सा है। इस पवित्र पर्व में सूर्य देवता और छठी मैया की उपासना के माध्यम से समर्पण, भक्ति और प्राकृतिक शक्ति का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। छठ पर्व का महत्व इतना व्यापक है कि यह न केवल बिहार, बल्कि देश-विदेश में बसे बिहारवासियों की पहचान बन गया है।
छठ पूजा का पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व
छठ पर्व की जड़ें प्राचीन काल से जुड़ी हुई हैं। महाभारत में उल्लेख मिलता है कि द्रौपदी और पांडवों ने कठिन समय में छठ पूजा कर सूर्य देवता का आशीर्वाद प्राप्त किया था। इसके अलावा, राजा प्रियंवद की पुत्री को संतान सुख के लिए भी इस व्रत का पालन करने का निर्देश दिया गया था। तब से यह परंपरा आगे बढ़ती रही और बिहार के लोगों के बीच आस्था का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गई।
सूर्य की उपासना का यह पर्व समाज में स्वास्थ्य, समृद्धि और आत्म-संयम के गुणों का प्रसार करता है। सूर्य देवता को नमन करते हुए मनुष्य प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है।
छठ पूजा की रस्में और अनुशासन
छठ पर्व की चार दिवसीय अनुष्ठान यात्रा कठोर तप और अनुशासन का प्रतीक है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा को शुद्ध किया जाता है। इस पूजा में कोई मूर्ति पूजा नहीं होती, बल्कि सूर्य की शक्तियों को जल में प्रतिबिंबित कर श्रद्धा व्यक्त की जाती है।
1. पहला दिन: नहाय-खाय
इस दिन व्रती (व्रत करने वाला व्यक्ति) गंगा या किसी पवित्र नदी में स्नान करके शुद्धता का संकल्प लेते हैं। घर को स्वच्छ किया जाता है, और व्रती शुद्ध भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं।
2. दूसरा दिन: खरना
इस दिन दिनभर उपवास के बाद व्रती शाम को गुड़ की खीर और गेंहू की रोटी का प्रसाद बनाते हैं और केवल इसी प्रसाद को ग्रहण करते हैं। इसे शुद्धता और त्याग का प्रतीक माना जाता है।
3. तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य
व्रती सायंकाल सूर्यास्त के समय पानी में खड़े होकर सूर्य देवता को अर्घ्य अर्पित करते हैं। इस पवित्र अवसर पर कच्चे बांस के सूप में नारियल, ठेकुआ, केला, और मौसमी फल रखे जाते हैं। इस अर्घ्य के समय का दृश्य अत्यंत भावुक और मनमोहक होता है।
4. चौथा दिन: उषा अर्घ्य
अंतिम दिन उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। यह अर्घ्य देने के बाद व्रती अपने कठिन व्रत का समापन करते हैं और परिवार और समुदाय के साथ प्रसाद का वितरण करते हैं।
साहित्यिक और लोकगीतों का महत्व
छठ पूजा के दौरान गाए जाने वाले पारंपरिक लोकगीतों का भी विशेष स्थान है। इन गीतों में न केवल श्रद्धा की गूंज होती है, बल्कि बिहार की मिट्टी की सुगंध भी समाहित होती है। ‘काँचहि बांस के बहंगिया’ और ‘ऊंहे बररवा के’ जैसे गीत केवल सुर और ताल नहीं हैं, बल्कि इनसे जनमानस के मन में एक भावुकता और सांस्कृतिक गर्व उत्पन्न होता है। ये गीत पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही परंपरा का हिस्सा बन गए हैं, और इनसे लोगों के भीतर छठ का उत्साह और श्रद्धा कई गुना बढ़ जाता है।
बिहार के सामाजिक जीवन में छठ पूजा का प्रभाव
छठ पूजा का बिहार के सामाजिक जीवन में विशेष स्थान है। यह पर्व समाज के हर वर्ग को एक साथ जोड़ता है। समाज में किसी भी प्रकार का भेदभाव किए बिना लोग एकत्रित होते हैं और सामूहिक रूप से इस महापर्व को मनाते हैं। इस अवसर पर लोग अपने कार्य, पेशे और स्थान से ऊपर उठकर केवल एक श्रद्धालु और समर्पित भक्त के रूप में भगवान सूर्य के प्रति अपनी भक्ति अर्पित करते हैं।
छठ पूजा का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
छठ पूजा में सूर्य की उपासना का वैज्ञानिक महत्व भी है। जब हम सूर्य की ओर मुख करके अर्घ्य अर्पित करते हैं, तब सूर्य की पराबैंगनी किरणें हमारे शरीर पर सकारात्मक प्रभाव डालती हैं। यह किरणें हमारे शरीर में विटामिन डी का निर्माण करती हैं, जो हमारी हड्डियों को मजबूत बनाता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। पानी में खड़े होकर अर्घ्य देने से सूर्य की किरणें परावर्तित होती हैं और शरीर पर कम तीव्रता के साथ पड़ती हैं, जिससे कि इनका लाभ और भी अधिक हो जाता है।