Categories: Blissful Bihar

छठ: प्रकृति की प्राकृतिक ढंग से पूजा

Spread the love

भारत त्यौहारों का देश हैं। यहां का हर दिन, पर्व का दिन रहता है। यहां के पर्व धर्म,संस्कृति और क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग होते हैं। कई जगह लोगों के अपने-अपने स्थानीय त्योहार भी होते हैं। जैसे, पंजाब के लोगों द्वारा लोहड़ी मनाई जाती है, दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में ब्रह्मा लक्ष्मी की पूजा की जाती है।

इसी तरह बिहार और नेपाल के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में छठ पूजा की परम्परा है। प्रवासी भारतीयों के द्वारा भी इसे मनाने के कारण यह पर्व भारत के अलावा विश्व के अन्य भागों में भी मनाया जाने लगा है।

यह एक ऐसा त्यौहार है, जो लिंगभेद नहीं करता है। इसका व्रत स्त्री तथा पुरुष दोनों करते हैं। छठ में व्रत करने वाले स्त्री और पुरुषों के साथ इसे मनाने में परिवार के सभी लोग और स्थानीय लोग भी शामिल रहते हैं। छठ में मुख्य रूप से पारम्परिक और प्राकृतिक विधि-विधान से सूर्य तथा ऊषा की पूजा होती है।

इस पूजा के बारे में हम यह भी कह सकते हैं कि “यह प्रकृति की प्राकृतिक ढंग से पूजा है” और यह एक ऐसी पूजा है जो कि पर्यावरण के अनुकूल भी है। इसमें जिन-जिन साधनों का उपयोग किया जाता है, वे ज़्यादातर बांस तथा मिट्टी के ही बने होते हैं। जैसे, बांस के बने सूप और दऊरा के साथ-साथ प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के बर्तन का उपयोग किया जाता हैं।

आदि देव भगवान भास्कर की आराधाना का यह महापर्व असल में प्रकृति की आराधना का भी त्योहार है। छठ पूजा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश की कृषक सभ्यता का महापर्व है। खेतों में लहलहाती धान की फसल, उसकी सोने सरीखी पीली-पीली बालियाँ देखकर किसान मन प्रकृति के प्रति सहज ही कृतज्ञता से झुक जाता है और वह तुभ्यम वस्तु गोविंद, तुभ्यमेव समर्पये के भाव के साथ प्रकृति के प्रतीक सूर्य देव के आगे करबद्ध होकर उनकी आराधना करने लगता है ।

छठ पूजा के आयोजन से जुड़े लोग बताते हैं कि यह एक ऐसा त्योहार है जिसका बाजार से कोई खास वास्ता नहीं है। इसका अपना ही बाजार होता है जो खास इसी अवसर पर दिखाई देता है। उनका कहना है कि सूर्य देव को अर्घ्य देने के लिए जो भी वस्तुएँ लाई जाती हैं, वे सभी एक किसान के घर में सहज ही उपलब्ध होती हैं।

केला, मूली, नींबू, नारियल, अदरक, ईख, गेहूँ के आटे से बना ठेकुआ, सबकुछ किसान खुद ही उपजाता था। जिस बाँस की टोकरी में अर्घ्य का यह सारा सामान रखा जाता है, वह भी खेती-किसानी करने वाले लोग खुद ही बना लेते थे।

अगर हम धर्म से हटकर भारत के स्थानीय और पारम्परिक त्यौहारों की बात करें तो यह पर्यावरण और संस्कृति के अनुकूल ही रहते हैं। आज अगर इनके विकृत रूप दिखते हैं तो वे इनमें धर्म और कॉर्पोरेट के छौंक लगने के बाद ही आए हैं।

छठ जैसे पर्व समाज और पर्यावरण के लिए ज़रुरी हैं

प्राचीन काल में भारतीय प्रायद्वीप में जो भी पूजा होती थी वह प्राकृतिक घटकों की ही होती थी लेकिन इसमें बदलते समय के साथ कुरीतियां आती गईं और कुछ लोग इन्हीं कुरीतियों के आधार पर इन पर्वों तथा संस्कृति को बदनाम करने लगे।

हमें यह समझना चाहिए कि छठ जैसे पारम्परिक पर्व समाज और पर्यावरण के लिए कितने ज़रुरी हैं। भारत भौगोलिक और सांस्कृतिक रुप से बहुत ही विभिन्नताओं वाला देश है। इसके हर भाग में अपने स्थान के आधार पर कुछ ना कुछ त्यौहार मनाए जाते हैं।

ये त्यौहार वहां की ज़रूरतों के आधार पर होते हैं। आज भी भारत के आदिवासी इलाकों में वहां के लोग अपने आस-पास के प्राकृतिक स्थानीय घटकों की पूजा करते हैं। जैसे, जंगल में रहने वाले लोग अपने जंगल को देवता मानकर पूजा करते हैं। इसी तरह पहाड़ों के लोग पहाड़ो को पूजते हैं।

इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में जो भी पर्व रहे हैं वे स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर ही रहे हैं ना कि धर्म के आडंबर के लिए। इसलिए हमें इन त्यौहारों को अपनी थाती मानकर, पाखंड तथा विकृत आधुनिकता से बचाते हुए, सहेजना चाहिए।

प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना

वास्तव में भारतीय संस्कृति के मूल में ही प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना निहित रही है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में नदियों, वृक्षों, पर्वतों आदि का मानवीकरण करते हुए उनमें जीवन की प्रतिष्ठा की गई है। नदियों को माता कहने से लेकर पेड़ और पहाड़ का पूजन करने की भारतीय परंपराओं को पूर्वाग्रहवश कोई अंधविश्वास भले कहे, परंतु ये परंपराएं हमारी संस्कृति के प्रकृति-प्रेमी चरित्र की ही सूचक हैं।

संभवत: हमारे पूर्वज भविष्य में मनुष्य द्वारा प्रकृति के निरादर के प्रति सशंकित थे, इसलिए उन्होंने इसको धर्म से जोड़ दिया ताकि लोग धार्मिक विधानों में बंधकर ही सही, प्रकृति का सम्मान व संरक्षण करते रहें। छठ से लेकर कुंभ जैसे पर्व हमारे पूर्वजों की इसी दृष्टि का परिणाम प्रतीत होते हैं और अपने निर्धारित उद्देश्यों को कमोबेश साधते भी आ रहे हैं। अत: कथित विकास के वेग में प्राकृतिक विनाश करता आधुनिक मनुष्य छठ आदि पर्वों में निहित प्रकृति से प्रेम के संदेश को यदि सही प्रकार से समझ ले तो यह धरती सबकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए अनंतकाल तक जीवनयोग्य रह सकती है।

Sushmita

Recent Posts

Strong, Resilient, Unstoppable: Prioritizing Women’s Health & Fitness

Strong, Resilient, Unstoppable: Prioritizing Women’s Health & Fitness By Swati Dubey, Fittr Coach Women’s health…

1 week ago

Prevention is Better Than Cure: Why Proactive Health Habits Matter

Prevention is Better Than Cure: Why Proactive Health Habits Matter By Ashima Kapoor, Fitness and…

2 weeks ago

Are You a Sleeping Beauty or a Sleep-Deprived Beast?

Are You a Sleeping Beauty or a Sleep-Deprived Beast? Decode the Science Behind Sleep Cycles!…

2 weeks ago

Anjali Arya’s 20kg Postpartum Weight Loss Journey

Anjali Arya’s 20kg Postpartum Weight Loss Journey: A Story of Strength, Discipline, and Transformation Motherhood…

2 weeks ago

Seed Cycling for Hormone Balance: Hype or Help?

Seed Cycling for Hormone Balance: Hype or Help? By Swati Dubey, Fittr Coach #fittrcoach #fitmomof2…

2 weeks ago

Home Workouts – Get Fit Without Leaving Your Living Room

Summary Building a fitness routine from the comfort of your living room is easier today…

2 weeks ago